गोण्डवाना के पवित्र “टोण्डा संस्कार”

Gond Gotul


पुरखो की वैज्ञानिक सम्मत व्यवस्था परोय पांडना अर्थात नया नाम से संम्बोधित करना / जानना है परोय पंडना गोंडवाना के इतिहास में कोया पुनेम के पवित्र से को + या = कोया = याया के कोक ( गर्भ / गुफा ) = कोयतुर कोया मनवाल यानी इस प्रकृति ( पुरुड़ ) मे कोई भी जीव -जन्तु, पशु-पक्षी, वनस्पति, जीव-जगत मूंद सुल हर्री के सिद्धांतपर आधारित होते हैं अर्थात अपने वंश या अपने माँ की कोक ( गर्भ ) से जन्म होता है। कैरोल्स लीनियस के द्विनाम पद्धति से हजारों वर्ष पूर्व महान पहन्दी पारी कुपार लिंगों ने टोटेमिक व गोत्र व्यवस्था के अध्ययन के पश्चात यह परोय पन्डना जैसे व्यवस्था विकसित किया प्रथम नाम जिस वंश का है जैसे नयताम, मरकामी, टेकामी, हलामी, नुरेटी इत्यादि और द्वितीय नाम प्रकृति( पुरुड़ ) से सम्बंधित या जाति घोतक जैसे नुरेटी हितुम नुरेटी = वंश + हितुम =प्रकृतिक पुष्पमरकामी पुरुड़ मरकामी = वन्श + पुरुड़ (प्रकृति) कवासी लखमा = कवासी / कवाची वन्श + लखमा प्राकृतिक सम्मत गोंडी नाम नयताम वलेक नयताम = वन्श + वलेक प्रकृति से वलेक मरा / सेमल पेड़ होते हैं। हम जब अपने माँ के कोक से इस धरती पर पहला कदम रखते हैं तो हम लोग सीधा - सीधा हितुम, पुनांकि दीपक,संदीप,भूपेंद्र इत्यादि के नाम से नही जानते बल्कि हम जिस घर मे जन्म लिए होते हैं उस वश / परिवार के नाम से जानते हैं जैसे- आज नयताम के घर या मरकामी के घर या हलामी के घर मे एक फूल आया है या आई है।
महान वैज्ञानिक  पह्न्दी  पारी कुपार लिंगो के महान व्यवस्था को हस्तक्षेप करते हुए आर्य दिकु युरेशियनो ने सोची समझी रणनीति के साथ प्राकृतिक सम्मत सुन्दर नाम के बीच में अप्राकृतिक राम नामक वायरस डाल दिए हैं जिस प्रकार गोटुल एजुकेशन सिस्टम में जबरन गोटुल को , पेन गुड़ी / गुड ( गोण्डवाना के पवित्र से गुड़ी / गुड / गोंगो ) को मंदिर, नार्र को गाँव व चिकला याया / जिमिदरीन को सीता में तब्दील करने में लगे हुए हैं। महान लिंगो के द्वारा प्रतिपादित यह व्यवस्था दक्षिण बस्तर (भारत) के कोयतुरों मे आज भी यह व्यवस्था उनके बाना - बानी में स्वतः परिलक्षित होता है हम कोयतुर दुनिया के सहज व सभ्य मानवोसमुदाय में एक हैं जोकि हमारे जीर्र में प्रकृति के असँख्य दादा के दादा के दादा के दादा के दादा के द्वारा अर्जित ज्ञान का भंडार है  इसलिए जीर्र में कोडिंग ज्ञान को निःशुल्क संचयन करते हैं जिस प्रकार प्रकृति हमे निःशुल्क ज्ञान देती है इसलिए हम प्रकृति सेवककहलाते हैं क्योंकि हम कोया कोयतुर प्रकृति से निःशुल्क ज्ञान लेते हैं और प्रकृति का संरक्षण, संवर्धन और सेवा अर्जी करते हैं।
हम अपने पुरखों दादा के दादा के दादा के दादा के दादा के दादाओं के द्वारा विकसित वैज्ञानिक सम्मत व्यवस्था पर चलते आ रहें हैं परन्तु कुछ यूरेशियन जीर्र (डीएनए) के विध्वंसकारी लोग हमारे प्रकृति सम्मत व्यवस्थाओं में जैसे - पेन करसाड़ पांडुम हेसांग,के रीति-नितिटोण्डा संस्कार में दिकुओ द्वारा नाम का पहला अक्षर चयन कर उसे जीवन भर गुलाम बनाना मण्डा संस्कार (मरमिंग) में अप्राकृतिक यज्ञ करके यज्ञ में लाखों बीज को जलाना कुण्डा संसकार में नर्क और स्वर्ग का पथ निर्धारण करना इस प्रकार के मनगढ़ंत वायरस डालने में तुले हुए हैं। वर्तमान व नई पीढ़ी से अपील अपने - अपने पुरखों के बनाये गए कोयतोरीन्स व्यवस्थाओं के पुनेमी जड़ को पुनेमी ऊर्जा से गोता लगाकर अपने जीर्र को जगाये और पुनेम पथ पर संचालित व्यवस्थाओं को जाने, समझें और अपने आप को व अपने कुन्दा को सुरक्षित रखें तथा भावी पीढ़ियों को अपने डीएनए में कोडिंग ज्ञान को सुरक्षित हस्तांतरित करे। 

© नयताम तुलसी


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