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लोग पहले से ज्यादा तार्किक, वैज्ञानिक और दृढ़ होते हुए आगे बढ़ रहे हैं, परंतु आदिवासी समाज एक हाथ में प्रकृति को लेकर और दूसरे हाथों में खाय अघाव वाले बेतहाशा अंधाधुंध विकास को पकड़कर चलने के लिए प्रयासरत है, उनके इस महान सोच के अनभिज्ञ जानकारी के अभाव कहे या आधुनिकता के रस में डूबे रहने वाले जनमानस द्वारा उन्हें कई तरह से ठोकरें खाना पड़ता है,
कभी वह वनवासी कहला कर शर्मिंदा उठाने को मजबूर हैं, तो कभी जंगली, नक्सली, असभ्य जैसे धारदार चोट पहुंचाने वाले शब्दों से लोग हमें इन सारे शब्दों से स्वागत तो जोरो से करते हैं,
पर कभी दूरदर्शिता वाले जनमानस के कतार में जगह देने को हिचकिचाते हैं, खैरा सा है लोगों में चेतना जरूर आएगा साल दर साल विभिन्न तरह के प्रकृति आपदाएं महामारी जैसे (कोविड-19) लोगों को सोचने में जरूर मजबूर करेगा, और आभास करने की भी शुरुआत लगभग हो चुकी है की आदिवासी और प्रकृति से छेड़छाड़ का मतलब है खुद के पैरों में कुल्हाड़ी मारना,
आदिवासी शुरू से ही प्रकृति से ही जुड़ा रहा, पेड़ पौधों से बढ़ना सीखा कलरव करते चिड़िया चौगुन से बोलना सीखा,
जंगली जानवरों पशुओं से चलना और प्रकृति से ही खाना पीना जीना सीखा, यह समझता था जिसके वजह से वह जीवित है उसे बैर नहीं किया जा सकता इसलिए वह हमेशा से प्रकृति के प्रति रेडी रहा और छल कपट लोभ, द्वेष से अपने आपको हमेशा से दूरी बनाए रखा, इसका जीवंत उदाहरण प्रकृति से प्राप्त अनाजों को सबसे पहले प्रकृति को समर्पित करने जैसे रिवाजों में आज भी देखा जा सकता है,
आज शब्दों के हेरफेर और उन शब्दों के प्रयोग करने की कला से कई जीत हासिल कर रहे हैं,आदिवासी इस मामले में पीछे छूटते नजर आता है इसी शब्दों का हेरफेर कर छोटे व्यापारी महाजन मध्यस्थ जंगल पहाड़ों के बीच बस से आदिवासियों को कई तरह से ठग लेते हैं, जिससे उन्हें सही मेहनताना नहीं मिल पाता है, प्रत्येक गांव में वह मध्यस्थ देखे जा सकते हैं, जो उनके वन उत्पाद चीजें को खरीदने के लिए गांव में डेरा जमाए हुए रहते हैं,
शुरू से ही आदिवासियों के जुबानो मैं अदर सूचक और स्नेह से भरा हुआ शब्द है, आज भी इन लोगों को हुजूर साहेब, बाबू,दादा, बड़े आदमी शब्दों का प्रयोग करते हुए देखा जा सकता है आदर सूचक शब्द का प्रयोग किए बिना इनकी बात पूरी नहीं हो पाती है, जिससे सब कुछ प्राप्त होता है उसके खिलाफ सवाल खड़ा करना अनुचित समझते थे, वे कभी प्रकृति के खिलाफ प्रश्नवाचक शब्द खड़े नहीं किए, यही वजह है कि आज भी आदिवासियों की जुबान ओं में प्रश्नवाचक शब्दों की कमी महसूस होती है वह कभी सवाल खड़े करते हुए नहीं देख पाते हैं।
सभी महत्वपूर्ण और आवश्यक कार्यों को भी वाह सामूहिक ता के साथ निर्वहन करने का प्रयास किया जिसकी वजह से उन्हें सवाल करने का औचित्य महसूस नहीं हो सका, जहां वे निवास करते वहां के चारों और को अपना परिवार की तरह समझना, इसका बेहतरीन उदाहरण गण व्यवस्था में देखा जा सकता है, आज भी आदिवासी बाहुल्य इलाकों में गण व्यवस्था से जुड़े पहलू पंचा मदत वस्तु विनियम प्रणाली व्यवस्था देखा जा सकता है, पंच व्यवस्था ऐसी व्यवस्था है जिसके अंतर्गत सामूहिक रूप से लोग किसी व्यक्ति के अवश्य कार्यों को बिना किसी प्रकार की लागत से निर्वाहन करना होता है, यह सिलसिला लगातार एक दूसरे के प्रति चलता रहता है, मदद व्यवस्था के अंतर्गत भी कम से कम लागत पर किसी का काम कर देना होता है, कृषि से संबंधित कार्य जैसे फसल बोने, खरपतवार निकालने, फसल को काटने आदि इसी व्यवस्था से ग्रामीण क्षेत्रों में किया जाता है।
उपरोक्त सामूहिकता, संयमता, एकजुटता परंपरा निर्भरता के कारण लोगों को सवाल करने का मौका ही नहीं मिल पाया,
आज परिस्थिति विपरीत प्रतीत होती है सवाल करना अति आवश्यक महसूस होता है, जिस प्रकार विद्यालय के एक कक्षा में सवाल पूछने वाले विद्यार्थी को होनहार की संज्ञा दी जाती है ठीक उसी प्रकार आदिवासियों को भी होनहार और तेज की संज्ञा प्राप्त करने के लिए सवाल करना जरूरी है,
जिस दिन आदिवासियों के जुबानो में प्रश्नवाचक शब्दों की बढ़ोतरी होगी निश्चित रूप से अधिकाधिक समस्याओं का समाधान संभव है जिस दिन आदिवासियों द्वारा का अक्षर से प्रारंभ होने वाले शब्द जैसे - क्या, कब, कहां, क्यों, कौन, कैसे, किसने, किसको, किसका, कौन सा, कितने, कितना आदि शब्दों का प्रयोग होना प्रमुखता से प्रारंभ होगा, तब उन पर होने वाले छल कपट अत्याचार कम होने लगेंगे।
आज परिस्थिति विपरीत प्रतीत होती है सवाल करना अति आवश्यक महसूस होता है, जिस प्रकार विद्यालय के एक कक्षा में सवाल पूछने वाले विद्यार्थी को होनहार की संज्ञा दी जाती है ठीक उसी प्रकार आदिवासियों को भी होनहार और तेज की संज्ञा प्राप्त करने के लिए सवाल करना जरूरी है,
जिस दिन आदिवासियों के जुबानो में प्रश्नवाचक शब्दों की बढ़ोतरी होगी निश्चित रूप से अधिकाधिक समस्याओं का समाधान संभव है जिस दिन आदिवासियों द्वारा का अक्षर से प्रारंभ होने वाले शब्द जैसे - क्या, कब, कहां, क्यों, कौन, कैसे, किसने, किसको, किसका, कौन सा, कितने, कितना आदि शब्दों का प्रयोग होना प्रमुखता से प्रारंभ होगा, तब उन पर होने वाले छल कपट अत्याचार कम होने लगेंगे।
© अनुज बेसरा

