कोर्हाटुम ( मुर्गा बाजार )

Rakesh Darro
#मुर्गा_बाजार


बस्तरिया परम्परा में मुर्गा लड़ाई मनोरंजन के साथ - साथ मेहमान नवाजी का भी हिस्सा है जिसमे लोग शौक से मुर्गा लड़ाते है, मुर्गा लड़ाई का कोई खास सीजन नहीं होता पर मुर्गा लड़ाई का खेल धान कटाई के बाद जोर पकड़ता है । मुर्गा बाजार के लिए साप्ताहिक हाट बाजार की आवश्यकता नही होती, लोग दिन तय करके सप्ताह के एक दिन मुर्गा लड़ाने के लिए इक्कठा होते हैं आज कल गाँवो में लगने वाले साप्ताहिक बाजारों में मुर्गे लड़ाए जाते हैं। लोगो में मुर्गा लड़ाई के प्रति धीरे - धीरे क्रेज बढ़ता जा रहा है क्यूंकि मुर्गा लड़ाई का स्वरूप ही बदल गया है पहले मुर्गा लड़ाई सिर्फ मनोरंजन और हार - जीत तक ही सिमित था पर आज मुर्गा लड़ाई में सट्टे लगाया जाता है, सट्टे लगाने के लिए दुसरे शहर से लोग आते हैं, जिस क्षेत्र में भी मुर्गा बाजार होता है उस क्षेत्र के मुर्गे लड़ाई के शौक़ीन लोग अपने सारे काम - काज को छोड़कर मुर्गा बाजार पहुँच जाते हैं। 

गाँवो में लोग मुर्गा लडाने के लिए मुर्गा को पहले प्रशिक्षित करते हैं ताकि मुर्गा अपने प्रतिद्वंदी को हरा सके और इसके लिए लोग मुर्गा के खान - पान का भी विशेष ध्यान रखते हैं, क्यूंकि मुर्गे का जीत मुर्गे के मालिक को प्रतिष्ठा दिलाता है
मुर्गा लड़ाई गोल घेरा के बीच में संपन होता है और उस गोल घेरे के अन्दर सिर्फ दो लोग ही जा सकते हैं जिनके द्वारा मुर्गा लड़ाया जाता है और बाकि मुर्गा लड़ाई को देखने वाले गोल घेरे के बाहर होते हैं, मुर्गा लड़ाई से पहले मुर्गो को आपस में लड़ाया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में "पाड़" कहा जाता है पाड़ इस लिए कराया जाता है ताकि जब मुर्गा मैदान उतरे तो जी जान से लड़े और जब पाड़ मिल जाता है ( एक मुर्गा को प्रतिद्वंदी मिल जाना ) तो दोनों मुर्गो के पैर में "काती" बांधा जाता है काती लोहे का बना हुआ तलवार का ही छोटा रूप है जिसे कई आकर में बनाया जाता है यह काफी तेज धार वाला होता है जिसे मुर्गे में बांध कर मैदान में उतारा जाता है
जो मुर्गा लड़ते - लड़ते गिर जाता है या मैदान छोड़कर भाग जाता है उसे हारा हुआ माना जाता है स्थानीय भाषा में उस मुर्गे को "हारिया" कहा जाता है। हारा हुआ मुर्गा जितने वाले मुर्गे के मालिक का हो जाता है
बस्तर में मुर्गा लड़ाई को आदिवासियों की संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है और बस्तर में मुर्गा लड़ाई के लिए कई क्षेत्रों में मुर्गा बाजार भी लगाया जाता है, इतिहास के पन्नों में मुर्गा लड़ाई की कोई प्रमाणिक जानकारी तो नहीं मिलती, लेकिन आदिवासी समाज में मुर्गा लड़ाई कई पीढ़ियों से आम जिंदगी का मनोरंजन का हिस्सा बना हुआ है

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