भारत की प्रमुख जनजातियों की अनकही परंपराएँ
जनजातियाँ केवल एक सांस्कृतिक शब्द नहीं हैं — वे हमारी मिट्टी की धड़कन हैं, जंगलों की कहानियाँ हैं, और कई
बार भविष्य की बुद्धिमत्ता भी।
भारत की जनजातियाँ (Adivasi / Tribal communities) केवल समाज-समूह नहीं हैं, वे पूरे देश की सांस्कृतिक जटिलता और जैव-सांस्कृतिक विविधता की नींव हैं। 21वीं सदी में जब शहरीकरण, ग्लोबल मार्केट और डिजिटलाइज़ेशन की लहर तेज है, तब जनजातीय समाजों की परंपराओं को समझना और संरक्षित करना और भी आवश्यक हो गया है।
जनजातीय परंपराएँ कई कारणों से महत्वपूर्ण हैं:
- पर्यावरण ज्ञान: जंगल, जड़ी-बूटी, मौसम-चक्र — जनजातियां सदियों से प्राकृतिक संकेतों के जरिए जीवनयापन कर रही हैं।
- सामाजिक ताने-बाने: सामुदायिक निर्णय-प्रक्रिया, साझा संसाधन और सहयोगी अर्थव्यवस्था।
- कला व लोककथा: चित्रकला, लोकगीत, नृत्य — जो सिर्फ मनोरंजन नहीं बल्कि इतिहास और मान्यताओं का भंडार भी हैं।
- सशक्त नारी भूमिका और नेतृत्व: कई जनजातीय समाजों में महिलाओं की निर्णायक भूमिका है।
- नए समाधान के बीज: क्लाइमेट-स्मार्ट कृषि, मिलेट्स, पारंपरिक चिकित्सा — ये आधुनिक संकटों का समाधान भी दे सकते हैं।
इस लेख का उद्देश्य इन परंपराओं को सिर्फ “सूची” के रूप में प्रस्तुत करना नहीं, बल्कि हर परंपरा के पीछे की आत्मा, कारण तथा आज की दुनिया में उसकी प्रासंगिकता समझाना है — और वह सब मानवीय अनुभव (Human Touch) के साथ।
1. गोंड — जंगल के रचनाकार और गोटुल
गोंड समुदाय मध्य-भारत के हृदय में बसा हुआ एक बड़ा जनजातीय समूह है। जिनकी बसाहट छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और तेलंगाना तक फैला हुआ। गोंडी संस्कृति में प्रकृति और आत्मा के बीच का रिश्ता घना, जटिल और श्रद्धास्पद है।
गोटुल केवल एक स्थान नहीं, जीवन-विद्यालय है
गोटुल को अक्सर “युवा सामुदायिक केन्द्र” कहा जाता है पर यह सिर्फ केंद्र नहीं,बल्कि जीवन-शिक्षा की एक प्रणाली है। जहाँ युवा-युवतियां सामाजिक व्यवहार को समझते हैं, और इसके लिए युवा-युवतियां लोकगीतों को गाते हैं, गोटुल के अपने नियम होते हैं जिसे युवा पीढ़ीदर-पीढ़ी ढोते हैं। जहाँ से उन्हें संस्कार मिलती है जीवन के पाठ सिखते हैं।
पेन/देव
गोंडो में देवता/देव को पेन नाम से जाने जाते हैं — पेड़, नदी और पहाड़ इन्हें देवताओं के घर माने जाते हैं। यह न केवल पूज्य है, बल्कि संरक्षण की एक पारंपरिक पद्धति भी है: जहाँ पेन/देव की पूजा होती, उस इलाके पर कटाई-फूट या अंधाधुंध शिकार कम होता था। आधुनिक संरक्षणशास्त्र में इस तरह के धार्मिक-आधारित संरक्षण मॉडल को community-based conservation कहा जाता है और यह आज भी बहुत उपयोगी है।
गोंड पेंटिंग
गोंड आर्ट में हर डॉट, हर रेखा, हर रंग का अर्थ होता है। ये सिर्फ सुंदरता नहीं, बल्कि पारिवारिक और पारिस्थितिक कथाएँ बयान करते हैं। जब एक बूढ़ा गोंडी कलाकार अपने पत्थर के पास बैठकर चित्र बनाता है, तो उसके हाथों में पीढ़ियों की स्मृति बनकर उभरती है।
2. संथाल — सामूहिक पूजा और टोटम की पहचान
संथाल समाज की जड़ें
झारखंड, पश्चिम बंगाल और बिहार में फैली यह जनजाति अपनी कठोर परिश्रमी खेती और जीवंत नृत्य-संगीत के लिए जानी जाती है। परन्तु उनकी परंपराओं में गहरा सामाजिक रूपान्तरण और प्रकृति-सम्बंध का दर्शन छुपा है।
जाहेरथान — पवित्र सामुदायिक जंगल
संथालों का जाहेरथान गाँव के किनारे रखा जाने वाला वह हिस्सा है जहाँ समाज के लोग जुटते हैं, त्योहार मनाते हैं और निर्णय लेते हैं। जाहेरथान का अस्तित्व बताता है कि उनके लिए सामूहिक निर्णय कितना महत्वपूर्ण है — खेती कब होगी, अनाज का वितरण कैसे होगा, और सामूहिक रक्षा किस तरह से होगी।
टोटम प्रणाली — पहचान और संरक्षण
प्रत्येक परिवार का टोटम उन्हें किसी वृक्ष, पशु या पक्षी से जोड़ता है। यह सिर्फ प्रतीक नहीं — यह उनके पारिस्थितिक संबंध और एक-दूसरे के साथ सहअस्तित्व का प्रतिबिंब है। टोटम के कारण कुछ जानवरों की रक्षा होती थी — क्योंकि वे एक परिवार की पहचान का हिस्सा थे।
3. भील — धनुष-बाण, पिथोरा कला और भगोरिया उत्सव
भील का इतिहास और बहादुरी
भील भारत की एक बहुत पुरानी जनजाति है — उनके प्रतीक तीर और धनुष हैं। भील न सिर्फ शिकार में माहिर रहे बल्कि स्वतंत्रता-संग्राम के दौर में भी कई उत्साही योद्धा थे।
पिथोरा — दीवारों पर देवताओं का नृत्य
भील और कुछ पड़ोसी समुदायों की दीवारचित्रकारी — पिथोरा — एक तरह का सांस्कृतिक संवाद है। दीवारों पर देवताओं, प्राकृतिक घटनाओं और जीवन-कथाओं का चित्रांकन होता है, जिसे देखकर समुदाय के छोटे बड़े उत्साहित होते हैं। पिथोरा का इंस्ट्रक्शन यह है कि कला पूजा का भी एक रूप हो सकती है — समुदाय के विश्वास और मानसिक स्वास्थ्य का सहारा भी।
भगोरिया — प्रेम और उत्साह का मेला
भगोरिया त्योहार खासकर विवाह और प्रेम के इतराम में आयोजित होता है। यह परंपरा दर्शाती है कि जनजातीय समाजों में विवाह केवल परिवारों का लेनदेन नहीं, बल्कि समुदाय का उत्सव है—जहाँ प्रेम को खुलकर स्वीकार करने और सामाजिक स्वीकृति का सांस्कृतिक रूप मिलता है।
4. मिजो — ‘Tlawmngaihna’ और सहयोग की संस्कृति
मिजो समुदाय का मानवीय दर्शन
मिजोरम के मिजो लोगों का एक आदर्श विकल्प है — ‘Tlawmngaihna’ — जो दूसरे की सेवा और आत्म-त्याग को उच्च मान्यता देता है। यह कोई धार्मिक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक सामाजिक आदर्श है जो व्यक्ति को समाज के लिए समर्पित रहने की प्रेरणा देता है।
त्यौहार और बांस-जीवन
Pawl Kut और Chapchar Kut जैसे त्यौहार मिजो समाज की कृषि-रुझान और बांस पर आधारित जीवन शैली को दर्शाते हैं। बांस की कटाई के अवसर पर समाज एक साथ आकर उत्सव मनाता है—यह कृषि-समुदाय की साझेदारी का उत्सव है।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में मानवीय योगदान
जब आप मिजो गांवों में जाते हैं, तो आपको वह सामूहिकता और शिष्टाचार दिखता है — यहाँ लोग संसाधनों को बाँटते हैं, फिर भी हर व्यक्ति का मान सम्मान बना रहता है। यह आधुनिक समाज के लिए एक सीख हो सकती है — सामूहिकता और सहानुभूति का संतुलन कैसे रखा जाए।
5. नागा जनजातियाँ — मोरुंग, समारोह और इतिहास का प्रतिबिम्ब
नागालैंड के रंग और शौर्य
नागा जनजातियाँ अत्यन्त विविध हैं—हर एक की पोशाक, आभूषण और नृत्य अलग-अलग होता है। लेकिन उनके दिलों में एक समान तत्व है — युद्ध-परंपरा, गर्व और त्योहारों का रंग।
मोरुंग — युवा प्रशिक्षक
मोरुंग का इतिहास बताता है कि कैसे युवाओं को कला, नृत्य और युद्ध कौशल सिखाए जाते थे। आज मोरुंग का स्वरूप बदल चुका है पर वह अभी भी नागा युवाओं की संस्कृति और आत्म-अभिव्यक्ति का केन्द्र है।
Hornbill Festival — संस्कृति का विशाल मंच
हॉर्नबिल फेस्टिवल न सिर्फ नागाओं का बल्कि पुरे उत्तर-पूर्व का सांस्कृतिक उत्सव बन गया है — जहाँ परंपरागत नृत्य, गीत, हस्तशिल्प और कहानियाँ साझा की जाती हैं। यह न केवल मनोरंजन है, बल्कि पहचान और प्रचार का एक जरिया भी बन गया है।
6. टोडा — वास्तुकला, बफेलो पूजा और परंपरागत परिधान
टोडा का अद्वितीय मानव अनुभव
नीलगिरि की टोडा जनजाति की झोपड़ियाँ, पोशाक, और बफेलो संस्कृति इतने अनूठे हैं कि ये एक अलग-सी दुनिया का अहसास कराते हैं। उनकी घर-रचना और पहनावा पारंपरिक सौंदर्य और उपयोगिता का शानदार मिश्रण है।
बफेलो पूजा — अस्तित्व का सम्मान
टोडा समुदाय की भैंसें केवल पशु नहीं, वे परिवार का सम्मान और अस्तित्व हैं। बफेलो पूजा में समर्पण, सहयोग और प्रकृति की कड़ी पहचान मिलती है।
7. मुरिया-मुकाते (बस्तर) — डोकरा कला, सलामी पूजा और जंगल-जीवन
बस्तर की आत्मा — मुरिया और मुकाते
बस्तर की जनजातियाँ गहरी जंगलीय जीवन शैली के साथ जीवित हैं। उनकी सांस्कृतिक गतिविधियाँ अक्सर नृत्य, गीत और अनुष्ठानों में बदल जाती हैं — जो किसी शहर के शोर से बिलकुल अलग हैं।
डोकरा (Bell Metal) — धातु में जीवंत इतिहास
कोंडागांव और बस्तर की डोकरा कला (कांस्य/पीतल कला) केवल शिल्प नहीं, यह निरंतरता का प्रतीक है। यह कला स्थानीय संसाधनों, पारंपरिक तकनीक और व्यक्तिगत शैली का मिश्रण है। जब कोई महिला या पुरुष डोकरा के बर्तन को छूता है, तो वह पीढ़ियों के बोले हुए गीतों को छूता है।
सलामी पूजा — समाज की मान्यताएँ
सलामी पूजा न केवल शुरुआत का बधाई-रिवाज है, बल्कि यह समाज में नव-उत्साह और सम्मान का संकेत भी देती है।
8. जनजातीय चिकित्सा और पारंपरिक ज्ञान — जड़ से उपचार तक
पारंपरिक वैद्य और वन-दवा
कई जनजातियाँ प्लांट-नॉलेज में माहिर हैं — कौन-सी जड़ी किस रोग में काम आती है, कौन-सी जड़ों से ज़हरीले तत्व निकलते हैं और किस मौसम में कौन-सी दवा उपयोगी है। यह ज्ञान प्रायः मौखिक परंपरा में मिलता आया है और आज भी गांवों में जीवनरक्षक सिद्ध होता है।
आंचलिक दृष्टिकोण और विज्ञान
जब वैज्ञानिक इन परंपराओं का अध्ययन करते हैं, तो अक्सर पाते हैं कि जनजातीय ज्ञान आधुनिक शोध के साथ कई बार मेल खाता है — जैसे किसी पौधे के एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण या एंटीबैक्टीरिअल प्रभाव।
9. आदिवासी नृत्य, संगीत और मौखिक कथा — संस्कृति का जियो-कूट
नृत्य और संगीत — इतिहास की धड़कन
गौर, करमा, रौंडा, बेंडा, ढोलक — जनजातीय वाद्य और नृत्य उन कहानियों को कहता है जो लिखी नहीं जातीं। नृत्य में बीते कल, त्योहार और सामाजिक निर्णय छिपे होते हैं।
मौखिक परंपरा — लोककथाएँ और मिथक
जनजातीय लोककथाएँ बच्चों को नैतिकता, डर और प्यार की कहानियाँ सिखाती हैं। वे इतिहास का सहज, जीवित संस्करण हैं—कभी-कभी इतिहासकार इन कहानियों से भी बहुत कुछ सीखते हैं।
10. महिला नेतृत्व और सामाजिक संरचना — बराबरी की झलक
महिलाओं की भूमिका
कई जनजातियों में महिलाएँ सिर्फ घरेलू भूमिका तक सीमित नहीं हैं — वे कृषि-निर्णय, बाजार लेनदेन, कला निर्माण और सामाजिक प्रतिनिधित्व में निर्णायक होती हैं। यह नारी-सम्मान अक्सर आधुनिक समाज की तुलना में अधिक स्पष्ट होता है।
सामूहिकता और निर्णयन
जनजातीय समाजों में निर्णय लेने की प्रक्रिया अधिक खुली और सामूहिक होती है। यह लोकतांत्रिक मूल्य का एक लोकल रूप है — जहाँ पंचायत के साथ-साथ वातावरण, परंपरा और सहमति का महत्व है।
11. चुनौती और संवेदनशीलता — आधुनिक दबाव और संरक्षण
दबाव: भूमि, संसाधन और आधुनिकता
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वनों की कटाई, खनन और जलवायु परिवर्तन जनजातियों के जीवन-स्तर को प्रभावित कर रहे हैं।
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शिक्षा और रोजगार के कारण युवा शहरों की ओर जा रहे हैं — जिससे रोचक परंपराएँ कम होती नजर आती हैं।
संवेदनशीलता: सांस्कृतिक शोषण और पर्यटन
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जनजातीय कला और संस्कृति का शोषण (बिना फायदे के शिल्पों का निर्यात) और सांस्कृतिक तथाकथित “stereotyping” एक बड़ा मुद्दा है।
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जिम्मेदार पर्यटन (Responsible Tourism) और समुदाय आधारित हस्तशिल्प सहायता के मॉडल यहाँ मददगार हो सकते हैं।
12. कैसे कर सकते हैं हम मदद — संरक्षण के व्यवहारिक उपाय
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Community-led conservation: स्थानीय समुदायों को निर्णय और संसाधन दें।
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Fair Trade for Crafts: हस्तशिल्प-कला के लिए मूल्य सुनिश्चित करें।
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Documentation & Digital Archive: लोकगीत, नृत्य और परंपराओं का रिकॉर्ड बनाकर सहेजें।
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Ethical Tourism: समुदाय की अनुमति और लाभ के साथ पर्यटन को बढ़ावा दें।
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Education with Culture: आधुनिक शिक्षा में स्थानीय ज्ञान को शामिल करें।
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Support Traditional Healthcare: पारंपरिक वैद्य और उनके ज्ञान को मान्यता व सुरक्षा दें।
13. निष्कर्ष — पुरानी परंपराएँ, नया संदर्भ
जनजातीय परंपराएँ केवल इतिहास नहीं हैं — वे आज की चुनौती में उपयोगी ज्ञान हैं। उनसे हमें न केवल सौंदर्य और कहानियाँ मिलती हैं बल्कि जीवन-पद्धति, पर्यावरणीय संतुलन और सामुदायिक सौहार्द का पाठ भी मिलता है। अगर हम इन परंपराओं को समझकर, सम्मान देकर और सहयोग से संरक्षित करें, तो यह संस्कृति आने वाली पीढ़ियों के लिए भी जीवनदायिनी बनी रह सकती है।


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