मध्यप्रदेश
के बालाघाट जिले मे सतपुड़ा पर्वतीय श्रृंखलाओं की गोद में स्थित गोड़ों का धार्मिक
और ऐतिहासिक लांजीगढ़ बालाघाट गोदिया मार्ग के रजेगांव ग्राम से पूर्व की ओर 30 किलोमीटर की दूरी पर है।गोंडी
धर्म दर्शन में लांजीगढ़ का एक विशेष महत्व है।प्राचीन काल में गोंडी धर्म गुरु
पारी कुपार लिंगों ने माता कली कंकाली के बच्चों को कचारगढ़ पर्वत की कोयली कचाड़
गुफा से मुक्त कर अपने अनुयायी बनाया और लांजीगढ़ में ले जाकर उन्हें गोंडी धर्म की
शिक्षा देकर सगा सामाजिक घटकों में विभाजित किया और उन्हीं के माध्यम से गोंड सगा
समाज की व्यवस्था बनाईं।कोयली कचाड़ गुफा लांजीगढ़ के दक्षिण में 21 किलोमीटर दूर पर हावड़ा मुंबई रेलवे लाइन के दरेकसा रेलवे स्टेशन के पास
है।लांजीगढ़ के विषय में ऐसी भी धार्मिक गाथा गोंड समाज में प्रचलित है कि प्राचीन
काल में गोड़ो का शक्तिमान महापुरुष कुंवारा भिमाल के पूर्वजों की राजधानी लांजीगढ़
में थी।मंडावी गोत्रधारी मंगासिंह,सईमाल सिंह और भूरा भुमका
के बाद कुंवारा भिमाल और उसके 6 भाई तथा 5 बहनों ने अपने शासन काल में गोंडवाना में निवासरत जनता की सेवा तन मन धन
से की थी।इसलिए गोंड़वाना की जनता आज भी कुंवारा भिमाल की उपासना अपने अपने
ग्रामों में भिमाल पेन ठाना प्रस्थापित कर करती है।महाराष्ट्र के नागपुर जिले की
पारसिवनी तहसील में पेंच प्रकल्प के पास सतपुड़ा के पर्वतीय श्रृंखलाओं में कुंवारा
भिमाल का कई हजारों वर्ष पुराना ठाना हैं।जहां प्रतिवर्ष चैत्र पूर्णिमा को विशाल
मेला लगता है।जिसमें महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश,आंध्रप्रदेश, तेलंगाना,उड़ीसा,छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश की जनता लाखों की भीड़ में दर्शनार्थ पधारती
हैं।गोंडी धर्म दर्शन के अनुसार लांजीगढ़ के राजा कुंवारा भिमाल चौथा गोंडी धर्म
गुरु भी था।ऐतिहासिक काल में ई.पूर्व 275 से 235 के दरमियान भारत में सम्राट अशोक का राज्य था जिसके अधीन मध्य के गोंड
राजा महाराजाओं के अठारह गणराज्य थे जिनमें लांजीगढ़ भी सम्मिलित था।उस वक्त
लांजीगढ़ का राजा केशबा गोंड था।गढ़ वीरों की गाथा के अनुसार ई. पूर्व 230 से 357 ई. तक लांजीगढ़ एक स्वतंत्र राज्य था।ऐसा भी
कहा जाता है कि गढ़ कटंगा के पोलवंशीय गोंड राजाओं का मूल पुरुष राजा यदुराय भी गढ़ा
कटंगा के राजा बनने के पूर्व लांजीगढ़ के गोंड राजा धन्ना सिंह तेकाम का सेवक था जो
बाद में रतनपुर के कल्लोल राजा का सेनापति बना और तत्पश्चात ई. 358 में गढ़ा कटंगा राज्य का राजा बना।सन् 1223 ई. में
राजा कटेसूर मालूकोमा तेकाम की राजकुमारी हसला ने गोंड समाज की अस्मिता और अपने
पिता के मान सम्मान की रक्षा करने के लिए अपना बलिदान दिया,जिसकी
ऐतिहासिक गाथा आज भी गोंड समाज के लोगों में प्रचलित है।उस वक़्त लांजीगढ़ गढ़ा
राज्य घोषित किया और बालाघाट,गोंदिया,बैंहर,धमधागढ़,खैरागढ़ रतनपुर क्षेत्र को अपनी अधिसत्ता में
लिया था।उसी तरह सन् 1818 ई. में लांजीगढ़ की तिलका रानी ने
अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई कर स्वराज्य के लिए शहीद हो गई।इस तरह लांजीगढ़ गोंडो के
सामाजिक धार्मिक और ऐतिहासिक पहलुओं से संबंधित अनेक स्मृतियों से आलोकित
है।लांजीगढ़ का वर्तमान किला गढ़ा महाप्रतापि राजा संग्राम शाह के बावन गढ़ों से भी
बहुत प्राचीन है।वर्तमान में जिस किले के अवशेष हैं उसे राजकुमारी हसला के दादा
मालुकोमा ने 12वीं सदी में बनवाया था।किले का निर्माण कार्य
कुल सात एकड़ भूमि में किया गया है।किले का मुख्यद्वार पूर्वाभिमुख हैं जिसके मध्य
में कछुआ और नाग का चिन्ह का प्रतीक है।किले का परकोटा चतुष्कोणीय हैं जिसकी ऊँचाई
लगभग बीस फुट है,चारों कोणों में चार बुर्ज बनाए गए थे,जिनमें से दो बुर्ज अभी सही सलामत है।परकोटों के दीवारों की चौड़ाई आठ फुट
है जिस पर एक बुर्ज से दूसरे की ओर आने जाने का मार्ग भी है।परकोट के चारों ओर
गहरे खंदक है,जिनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि उन खंदकों
में पानी भरा होता था और उस पानी में बड़े बड़े मगरमच्छ पाले गये थे,जो तैरते हुए किले की ओर आनेवाले दुश्मनों का सफाया करते थे।इस तरह
सुरक्षा के दृष्टिकोण से लांजीगढ़ एक अभेद्य किला था।किले के परकोट की बनावट
चांदागढ़ किले के समान है,परकोटों और बुर्जों पर पीपल और बरगद
के विशालकाय पेड़ उग आये हैं।जिनकी आयु दो-तीन सौ वर्ष पुरानी है।किले के मुख्य
द्वार से प्रवेश करने के पश्चात बायें ओर निर्माण कार्य के अवशेष दिखाई देते हैं,जहां राजमहल था।उसके ठीक सामने पश्चिम की ओर एक स्नानागार हैं जो मिट्टी
से बुझ गया है।उसके तट मात्र दिखाई देते हैं।उसकी लंबाई चौड़ाई 60,70 है।मुख्य द्वार के दायें ओर बहुत बड़ा चौगारा है जहां पर राजदरबार था,जो आज पूर्ण रूप से ढ़ह गया है।किले के पाश्र्वद्वार को लगकर ही एक लंजकाई
अर्थात लांजी कन्या हसला कुंवारी के पुण्यस्मरण में बनवाया गया देवालय है।वह
पूर्वाभिमुख हैं।इसका निर्माण कार्य तराशे हुए कम कठोर बलुआ पत्थरों से किया गया
है।देवालय के मंडप के मध्य में चार चार स्तंभ दो पंक्तियों में है जो मंडप को तीन
भागों में विभाजित करते हैं।गर्भगृह अंदर से चतुष्कोणीय है।उसका द्वार भिन्न भिन्न
मूर्तियों के अलंकरण से सुशोभित है।भीतर के स्तंभों की रचना में नीचे का भाग चौकोर
शिला स्फीटिक और उसके ऊपर चतुष्कोणीय है जो ऊपर की ओर अष्टकोणीय एवं सोलह कोणीय हो
जाती है।यष्टि के ऊपर का भाग अण्ड है जिस पर चौकोर पाषाण खण्ड तथा धनाकार कोष्ठक
है देवालय के आंगन में पुरातत्व विभाग द्वारा उस परिक्षेत्र में प्राप्त हुए
विभिन्न मूर्तियों को एक कतार में रखा गया है।लांजीगढ़ से एक किलोमीटर की दूरी पर
प्राचीन कोटेश्वर अर्थात कोईतुरो का ईश्वर महादेव का देवालय जो काले पत्थरों को
तराशकर बनाया गया है।उसकी शिल्पकला भोरम देवगढ़ शैली की हैं।लांजीगढ़ में प्रतिवर्ष
चैत्र पूर्णिमा पंचमी को कुंवारा भिमाल का मेला लगता है।जिसका ठाना किले के दक्षिण
भाग में बड़ेदेव तालाब के पास है।इस तरह लांजीगढ़ गोंडो का ऐतिहासिक ही नहीं बल्कि
धार्मिक तीर्थ भी हैं।
THE GONDS के फेसबुक वाल से
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