बीज पंडूम और आदिवासियों का मौसम विज्ञान
आदिवासी
समुदाय वर्षों से प्रकृति के साथ जुड़कर अपने आप को प्रकृति के अनुरूप ढाल कर जीता
आ रहा है क्यूंकि आदिवासी समुदाय प्रकृति के सबसे करीब रहते हैं और यही वजह है की
आदिवासी समुदाय के लोग दिन की शुरुआत से संध्याकाल तक की क्रियाकलाप प्रकृति के
साथ जुड़कर करते हैं। आदिवासियों के रीति - रिवाज,
परंपरा, भाषा
- बोली, त्यौहार, सारे
प्राकृतिक हैं और इसी लिए आदिवासियों को प्रकृति पूजक कहाँ जाता है। आदिवासियों की
रीति - रिवाज,भाषा - बोली, परंपरा, त्यौहार, गीत, इत्यादि
प्राकृतिक हैं इनमे विज्ञान का समावेश है इसलिए आदिवासी समुदाय अपने रीति –
रिवाजों, भाषा – बोली, परम्पराओ को पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरण करता है। ताकि
पारंपरिक ज्ञान का चक्र बना रहे । आदिवासी समुदाय कालांतर से ही वैज्ञानिक सिध्दांतो के साथ जीता आ रहां है जो आज के वैज्ञानिक सिध्दांतो से किसी तरह से भी मेल नहीं खाता।
आदिवासी तकनीक / सिध्दांत
आदिवासी
समुदाय प्रकृति के सबसे करीब है और प्रकृति के साथ रहकर प्रकृति को समझ कर अपने -
आप को सभी तरह के ज्ञान से पारंगत किया है। आदिवासियों के पास अपनी खुद की तकनीक
है, सिंद्धात हैं जो आज का नही बल्कि जीवन की
उत्पत्ति के बाद मानव समाज का विकास के समय से चला आ रहाँ। इन तकनीको और
सिद्धान्तो में समय के साथ बदलाव और नए चीजो का समावेश भी हुआ है। उन्हीं में से
एक है "बीज पंडुम" बीज पंडुम का अर्थ है बीज वाला त्यौहार यह त्यौहार
आदिवासियों के मौसम विज्ञान से जुड़ा है। इस त्यौहार को आदिवासी लोग साल के अंत में
मनाते हैं यानी आदिवासियों के त्यौहार इस त्यौहार के बाद खत्म हो जाते हैं। यह
त्यौहार कई मायनों में महत्वपूर्ण है क्योंकि आदिवासी समुदाय इस त्यौहार में फसल
और मानसून के बारे में पूर्वानुमान लगाते है। यह त्यौहार अप्रैल महीना से शुरू
होकर जुलाई तक मनाया जाता है ऐसा इसलिए क्योंकि लोग अपने - अपने क्षेत्रों में
सुविधानुसार दिन तय करके मनाते हैं यह त्यौहार चार अलग - अलग जगहों पर महीने के अनुसार
मनाया जाता है।
मंडा
मंडा आदिवासियों की मुख्य
स्थान जहां पर अप्रैल महीना में लोग इकट्ठा होकर इस त्यौहार को मनाते हैं, मंडा टोटम आधारित होता है और अलग - अलग टोटम वालो का अलग - अलग मंडा होता है।
कुंडा
मई के महीने में
आदिवासी लोग इकट्ठा होकर मानसून के बारे में आकलन करते हैं
टोंडा
यहाँ पर जून महीना में
त्यौहार मनाया जाता है
पोदेला
यानी गांव में मनाया
जाने वाला त्यौहार यह त्यौहार जुलाई महीना में मनाया जाता है इस त्यौहार के बाद ही
आदिवासी लोग खेती करना प्रारम्भ करते हैं इस त्यौहार में गांव के प्रत्येक घर से
एक व्यक्ति गांव से दूर "ठाकुर दाई" में एकत्र होकर इस त्यौहार को मनाते
हैं । गांव के गायता (देवी - देवताओं की सेवा करने वाला व्यक्ति ) इकट्ठा हुए
प्रत्येक व्यक्ति को थोड़ा - थोड़ा धान का बीज देता है जिसे फरसा ( पलास ) के
पत्ते से लपेटकर घर लाया जाता है और घर के आंगन में लटका कर रखा जाता है जिसे बाद
में फसल बुवाई के वक्त बीज के साथ मिलाकर बुवाई किया जाता है। यह त्यौहार हर गाँव
में मनाया जाता है इस त्यौहार में गांव स्तरीय वर्षा का पूर्वानुमान किया जाता है
और उसके अनुसार ही फसल की बुवाई किया जाता है ।
आदिवासी समुदाय के लोग वर्षा की मात्रा का ज्ञान अलग-अलग पारंपरिक तकनीक करते है
अप्रैल की
तपती धूप में एक नए मटके में पानी भरकर उसे ढक दिया जाता है और करीब एक से डेढ़
घंटे के लिए छोड़ दिया जाता है इस तकनीक से पानी की मात्रा और दिशा के बारे में
पता चलता है। जिस दिशा में वर्षा की मात्रा ज्यादा होती है उस दिशा में मटके का
बहरी हिस्सा ज्यादा गीला रहता है और जिस दिशा में कम गीला रहता है उस दिशा में
वर्षा की मात्रा कम होती है और अगर मटका चारो तरह से गिला रहता है तो वर्षा की
मात्रा सभी तरफ बराबर है।
इसी तरह
आदिवासियों के पास मौसम की जानकारी के लिए सांप,
मेंढक, कीड़ा, पक्षी, चाँद, इत्यादि
हैं जिनके आवाज और आकार से आदिवासी समुदाय मानसून का सटीक पूर्वानुमान लगाते हैं।
नाग सांप की लम्बी आवाज पानी गिरने का संकेत है अगर सांप लम्बी आवाज निकलता है तो
वर्षा ज्यादा होती है और कम समय के लिए आवाज निकालता है तो वर्षा कम होती है। उसी
तरह मेंढक की एक विशेष प्रजाति होता है जिसके आवाज पानी की मात्रा को ज्ञान कराता
है "कट - कट" यानी बारिश कम होगा और "कटकटर" यानि बारिश
ज्यादा होता है। यह मेढक अक्सर सूखे लकडियो में पाया जाता है और यह मेढक लम्बी
दुरी तक छलांग लगता है। एक विशेष पक्षी जिसे आदिवासी लोग बोलचाल की भाषा में
"पानी कौवा" कहते है यह पक्षी भी विशेष तरह की आवाज निकालता है
"पोह - पोह" मतलब ज्यादा,
"पोक - पोक"
यानि कम। इसी तरह आसमान में चाँद को देखकर भी आदिवासी लोग वर्षा होने से पहले ही
आने वाली वर्षा के बारे में भांफ लेते हैं। रात के वक्त जब आसमान साफ होता है तो
कुछ समय के लिए चांद के चारों तरफ एक बड़ा या छोटा घेरा बना होता है जिसे देखकर भी
आदिवासी समुदाय वर्षा की जानकारी रखता है।
आदिवासी पारम्परिक
ज्ञान के अनुसार चाँद के चारो तरफ अगर छोटा घेरा बना रहता है तो वर्षा देर से होती
है और बड़ा घेरा होता है तो वर्षा करीब होती है। इस विधि से आदिवासी समुदाय आने
वाली वर्षा के दिनों को भाँपते है जैसे सप्ताह या महीना के बाद वर्षा होगी।
एक विशेष
तरह का कीड़ा जिससे बाढ़ की स्थिति के बारे में पता चलता है यह कीड़ा अपने पुरे शरीर
में छोटी – छोटी लकड़ियों के तिनके चिपकाकर रखता है जिसे आदिवासी लोग "कट
कीड़ा" के नाम से जानते है। आदिवासियों का मानना है की अगर यह कीड़ा अपने शरीर
में सामान्य से थोड़ी ज्यादा लम्बी लकडियो के तिनके को चिपाकर रखता है तो ज्यादा
वर्षा होगी और बाढ़ जैसे हालात बनेगा और अगर तिनके की लम्बाई सामान्य है तो बाढ़
जैसे हालात नही बनेगा। कोहरा भी आदिवासियों को वर्षा की संकेत करता है आदिवासी लोग
कोहरा को 'धुंधरा' कहते
है आदिवासियों का मानना है की अगर धुंधरा नीचे के तरफ आता है तो आने वाले दिनों
में वर्षा नही होगी और इसके विपरीत अगर धुंधरा आसमान के तरफ ऊपर चढ़ता है तो आने
वाला दिनों में वर्षा होगी। आदिवासी लोग धुंधरा के ऊपर और नीचे आने की ज्ञान पेड़
के पत्तो में ओस की मात्रा को देखकर करते हैं अगर धुंधरा नीचे के तरफ आती है तो पेड़
के पत्तो में ओस की बुँदे दिखाई पड़ता है और पत्तो से ओस की बुँदे नीचे टपकता रहता
है जिसे देख कर आदिवासी लोग समझ जाते है की अब आने वाले दिनों में वर्षा नही होगी।
यह सब आदिवासियों के पारंपरिक वैज्ञानिक तरीके हैं जिससे आदिवासियों को मानसून या
मानसून के बाद होने वाली वर्षा के बारे में सटीक पूर्वानुमान हो जाता है।
आदिवासी
समुदाय की जीवन शैली, रीती - रिवाज, भाषा
- बोली, परम्परा पर शोध कर रहे "कोया
भूमकाल क्रांति सेना" के एक शोधकर्ता "योगेश नरेटी" बताते है की
पुराने समय में लोग चिड़िया, दिमक का घर,प्लास
के फल इत्यादि को देखकर भी मानसून और आने वाले आपदाओ के बारे में जानते थे। योगेश
नरेटी कहते है की कुछ चिड़िया मानसून के आगमन से पहले ही अपना घोसला बनाने में जुट
जाते है जिसे देखकर आदिवासी समुदाय को पता चल जाता है की अब मानसून का आगमन होने
वाला है और उसी अनुरूप लोग खेती किसानी की तैयारी करते हैं। उसी तरह प्लास का फल
भी मानसून आने का संकेत है, और दिमक का घर बाढ़ जैसे हालात को
संकेत करता है दिमक का घर जमीन से एक फिट से लेकर दस फिट तक हो सकता है। दिमक अपने
घर को आने वाली वर्षा को ध्यान में रखकर बनाता है अगर बरसात में बाढ़ जैसे हालात
बनने वाला होता है तो दिमक पहले ही अपने घर की ऊचाई को बढ़ा लेता है जिसे देखकर बाढ़
की अनुमान लगा लेते है। योगेश बताते है की यह प्रकृति आदिवासियों को आने वाले
परिस्थिति के बारे में पहले ही अवगत करा देती है बसरते हमे प्रकृति को समझने की
जरूरत है।

