बस्तर संभाग के नारायणपुर जिले में घने जंगल के बीच बसा एक गांव “गढ़बंगाल” और उस गांव का हीरो “चेंदरू” जिसके किस्से पूरी दुनिया जानती है।
चेंदरू बचपन से ही निडर और अचूक निशाने बाज था शायद चेंदरु को यह विराशत में मिली थी क्यूंकि चेंदरु के पिता जी और उनके दादा जी कुशल शिकारी थे और अक्सर वे लोग शिकार करने जंगल की तरफ निकल जाते थे। चेंदरू के घर में चेंदरू सबसे ज्यादा लाडला था इस लिए उनके पिता जी जब भी शिकार करने जाते थे चेंदरू के लिए पक्षी, जिलहरी, जैसे कुन न कुछ लाते ही थे। चेंदरू पक्षी, गिलहरी, को पाकर बहुत खुश हो जाता था साथ में खेलता था उनके साथ बात भी करता था जैसे हम अपने बचपन में गुड्डे – गुडियों से बात करते थे, चेंदरू के पिता जी जब भी शिकार करने जाते थे तो चेंदरू को पिता जी के वापस लौटने का बेसबरी से इन्तजार होता था क्यूंकि चेंदरू के पिता जी चेंदरू के खेलने के लिए कुछ न कुछ लाते ही थे एक दिन जंगल से लौटते समय हर बार की तरह चेंदरू के लिये एक तोहफा लेकर आये ताकि चेंदरू उसके साथ खेले और उसके साथ रहे तोहफा बांस के एक टोकरी में था और जब चेंदरू उस टोकरी को खोलकर देखने लगा तो उसे टोकरी के अन्दर बाघ का बच्चा मिला चेंदरू बाघ के बच्चा को देख कर बहुत खुश हुआ अब चेंदरू को एक नया साथी मिल गया था। चेंदरू ने अपने साथी का नाम टेम्बू रखा चेंदरू अब अपना सारा वक्त अपने साथी टेम्बू के साथ गुजारता था चेंदरू टेम्बू के साथ बात करने लग जाता था मानो टेम्बू भी चेंदरू के साथ बात कर रहा हो, साथ में खेलना कूदना साथ में जंगल चले जाना मानो ये चेंदरू और टेम्बू के जीवन में एक तरह से रोजमर्रा बन गई हो।
समय
के साथ – साथ चेंदरू और टेम्बू बड़े हो रहे थे और एक दुसरे को समझने लग गये थे इस
लिए दोनों के बीच दोस्ती और गहरा होता जा रहा था, टेम्बू चेंदरू के हाव – भाव को
समझने लगा था इस लिए टेम्बू चेंदरू के इशारो पर चलता था टेम्बू और चेंदरू साथ में
नदी नहाने जाते थे इधर चेंदरू अपने तीर – धनुष से नदी के बड़े – बड़े मच्छलियों को
मरता था।
आपको
बाघ और चेंदरू की दोस्ती का यह किस्सा आपको सच से परे लगे पर यही सच है और इसी
सच्चाई पर बनी है1957
में फिल्म 'द जंगल सागा'
सोचिए
एक ऐसा दृश्य जहाँ एक इंसान और एक बाघ एक दूसरे के दोस्त हो, दोनों में कोई बैर नही। जिनकी सुबह साथ मे होती है और रात भी। कोई भी ऐसा
किस्सा सुन ले तो अपनी आंखों से देख कर ही दम भरे, और अब ऐसा
दृश्य डायरेक्टर “अरने सक्सडोर्फ” के
सामने था। जिसे देख उस दृश्य को उन्होंने पूरी दुनिया को दिखाने का फैसला कर लिया।
देश-
विदेश में बस्तर को पहचान दिलाने वाले चेंदरु पर 1957 में 'द जंगल सागा' (इंग्लिश में: द फ्लूट एंड द एरो) नाम
की स्वीडिश फिल्म बनी, उनके दोस्त टाइग़र के साथ उसकी दोस्ती
के बारे में दिखाया गया । फिल्म ने चेंदरू को दुनियाभर में मशहूर कर दिया। चेंदरु
पर 'ब्वाय एंड द टाइगर' नाम की एक
किताब भी लिखी गई।
जब फ़िल्म का प्रदर्शन हुआ तो चेंदरू को भी स्वीडन समेत दूसरे देशों में ले जाया गया.
साल 1958 में कान फिल्म फेस्टिवल में भी यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई. गढ़बेंगाल गांव से कभी बाहर नहीं गए चेंदरू फ़िल्म की वजह से महीनों विदेशों में रहे.
उनकी तो जैसे दुनिया ही बदल गई. विदेश में लोग उन्हें देखने आते थे और हैरान हो जाते थे कि इतना छोटा बच्चा बाघ के साथ रहता है, खाता-पीता है और उसकी पीठ पर बैठकर जंगल में घूमने की बातें करता है. चेंदरू रातों रात दुनिया भर में मशहूर हो गए.
जब किशोर उम्र के चेंदरू विदेश से वापस गांव आए तो फिर उनके सामने ज़मीनी सच्चाई थी. समय के साथ चेंदरू नारायणपुर और बस्तर के जंगल में गुम होते चले गए.
गढ़बेंगाल गांव के लोग बताते हैं कि चेंदरू जब विदेश से लौटे तो कई साल तक वे अनमने से रहे. गांव के लोगों से अलग रहने की वजह से कभी- कभी उन पर जैसे दौरा पड़ता था और वे फिर अपने अतीत में गुम जाते थे.
पत्रकार बस्तर जाने पर अनिवार्य रुप से गढ़बेंगाल जाते थे और चेंदरू से मिलते थे. लेकिन कम से कम दो बार ऐसा हुआ, जब चेंदरू पत्रकारों को आता देखकर जंगल की ओर भाग खड़े हुए.
तब घर वालों ने बताया कि पैंट-शर्ट पहनकर आने वाले को देखकर वे भाग जाते हैं.यह कड़वा सच है कि उनकी उपेक्षा ने उन्हे अंदर से तोड दिया था. किसी भी दूसरे मुरिया गोंड की तरह चेंदरू बेहद खुशमिज़ाज और बहुत सारी चीज़ों की परवाह न करने वाले थें लेकिन चेंदरू के सामने उनका अतीत आकर खड़ा हो जाता हैं जो, एक सपने की तरह था. इससे वे मुक्त नहीं हो पाए.”जब उन्हे पक्षाघात हुआ तो उनके इलाज के लिए आर्थिक सहायता के लिए बहुत कम ही लोग आयें.70वर्ष की आयु में 18 सितंबर 2013 को बस्तर के गढ़ बेंगाल में चेंदरू’ का निधन हो गया.जहाँ बाघों से दोस्ती करने वाले दिलेर चंदरू मडावी को विदेशो में शोहरत मिली वही अपने देश में उपेक्षा ने उन्हे अंदर से तोड दिया था...
जब फ़िल्म का प्रदर्शन हुआ तो चेंदरू को भी स्वीडन समेत दूसरे देशों में ले जाया गया.
साल 1958 में कान फिल्म फेस्टिवल में भी यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई. गढ़बेंगाल गांव से कभी बाहर नहीं गए चेंदरू फ़िल्म की वजह से महीनों विदेशों में रहे.
उनकी तो जैसे दुनिया ही बदल गई. विदेश में लोग उन्हें देखने आते थे और हैरान हो जाते थे कि इतना छोटा बच्चा बाघ के साथ रहता है, खाता-पीता है और उसकी पीठ पर बैठकर जंगल में घूमने की बातें करता है. चेंदरू रातों रात दुनिया भर में मशहूर हो गए.
जब किशोर उम्र के चेंदरू विदेश से वापस गांव आए तो फिर उनके सामने ज़मीनी सच्चाई थी. समय के साथ चेंदरू नारायणपुर और बस्तर के जंगल में गुम होते चले गए.
गढ़बेंगाल गांव के लोग बताते हैं कि चेंदरू जब विदेश से लौटे तो कई साल तक वे अनमने से रहे. गांव के लोगों से अलग रहने की वजह से कभी- कभी उन पर जैसे दौरा पड़ता था और वे फिर अपने अतीत में गुम जाते थे.
पत्रकार बस्तर जाने पर अनिवार्य रुप से गढ़बेंगाल जाते थे और चेंदरू से मिलते थे. लेकिन कम से कम दो बार ऐसा हुआ, जब चेंदरू पत्रकारों को आता देखकर जंगल की ओर भाग खड़े हुए.
तब घर वालों ने बताया कि पैंट-शर्ट पहनकर आने वाले को देखकर वे भाग जाते हैं.यह कड़वा सच है कि उनकी उपेक्षा ने उन्हे अंदर से तोड दिया था. किसी भी दूसरे मुरिया गोंड की तरह चेंदरू बेहद खुशमिज़ाज और बहुत सारी चीज़ों की परवाह न करने वाले थें लेकिन चेंदरू के सामने उनका अतीत आकर खड़ा हो जाता हैं जो, एक सपने की तरह था. इससे वे मुक्त नहीं हो पाए.”जब उन्हे पक्षाघात हुआ तो उनके इलाज के लिए आर्थिक सहायता के लिए बहुत कम ही लोग आयें.70वर्ष की आयु में 18 सितंबर 2013 को बस्तर के गढ़ बेंगाल में चेंदरू’ का निधन हो गया.जहाँ बाघों से दोस्ती करने वाले दिलेर चंदरू मडावी को विदेशो में शोहरत मिली वही अपने देश में उपेक्षा ने उन्हे अंदर से तोड दिया था...




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