कोया समुदाय और पडुंम
कोया - कोयतोर - गोण्ड - मुरिया - माड़िया आदि आदिवासी समुदायों के जीवन दर्शन
वर्तमान अति उपभोगवाद जनित चिन्ताजनक परिस्थितियों से बाहर निकालने की एक बेहतर
उम्मीद जगाती है । इन समुदायों में इन " पांरम्परिक प्रकृति संरक्षण " पद्धति को व्यवस्थित
रूप देने के लिए उनके पास " कोया पुनेम " के रूप में सरल प्रकृति दर्शन
भी है , "गोटूल " जैसे
एजुकेशन सिस्टम है, "नार-जागा – मण्डा
- गढ " जैसे व्यवस्थित प्रशासनिक ढांचा व इनके व्यवहारिक अनुप्रयोगो के लिए
" पंडुम " भी है।
पडुंम शब्द का गोण्डी भाषा में शाब्दिक विश्लेषण
"पडुंम पंडना
" शब्द से निर्मित है जिसका अर्थ होता है "बनाना" अर्थात प्रकृति
सम्मत परम्पराओं को अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए भी सुरक्षित बनाऐ रखना ।
कोयतुर
समुदाय में "पंडुम" का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है, हम अब तक सामान्यतः "पंडुम " का अर्थ "त्योहारों /उत्सवों
" के रूप में ही समझ पाऐ हैं । जबकि गोण्डीयन समुदाय में "पंडुम "
अपने अन्दर बहुत ही विस्तृत व गहन अर्थ छुपाऐ हुए हैं । दरअसल गोण्ड समुदाय के लिए
उत्सव के अतरिक्त "पडुंम " प्रकृति को अनंतकाल तक "मानव समुदाय" के लिए "अनुकूल" बनाऐ रखने का एक वैज्ञानिक प्रक्रम भी है । पडुंम को और अच्छे से समझने के लिए इसे गोण्डी
भाषा में शाब्दिक विश्लेषण करते हैं, "पडुंम "
शब्द गोण्डी लैंग "पंडना " शब्द से निर्मित है जिसका अर्थ होता है
"बनाना" अर्थात प्रकृति सम्मत परम्पराओं को अपने आने वाली पीढ़ियों के
लिए भी सुरक्षित बनाऐ रखना । इसे और
बेहतर ढंग से समझने के लिए हम उदाहरण स्वरूप किसी एक "पंडुम " जैसे की
"मरका पडुंम "(आम के फल का त्योहार ) के नेंग दस्तूरो को देख सकते हैं ।
जैसा कि हम जानते हैं कि गोण्ड समुदाय किसी भी प्रकृति प्रदत्त उपज को वह तब तक
खाना शुरू नहीं करता जब तक कि वह अपने "पूर्णावस्था" में नहीं आ जाता है
। इसी मूल भावना की तरह ही "मरका पडुंम " में भी जब " मरका"
याने आम के फल में " टाका" (बीज कोष) पूर्ण विकसित हो जाते हैं , अर्थात उस अवस्था के बाद आम का फल अपने आने वाली पीढ़ी हेतु पौध अंकुरण की
क्षमता विकसित करने लायक हो जाता है । तब सर्व प्रथम इस "अदभुत ज्ञान"
को बताने वाले "पुर्वजो / पेन्क" को आम के फल
की "सेवा " अर्पित कर समुदाय के सभी लोग एक साथ आम के फल का उपभोग करना
शुरू कर देते हैं । इसके पीछे वैज्ञानिक कारण यह होती है कि यदि हम छोटे-छोटे व
अपरिपक्व अवस्था से ही फलों का उपभोग करना शुरू कर देते हैं तो जाहिर है आम के
वृक्ष पर पके हुए आम के फल तैयार नहीं हो पाऐगे ।और यदि आम के फल पक नही पाऐगे तो
उस आम के फल की अगली पीढ़ी के लिए "नया पौध" तैयार नहीं हो पाऐगा जिसके
दुष्प्रभाव से आने वाले मानव समुदाय को भी उस "अदभुत प्रजाति "से वंचित
होना पड़ेगा ।और आगे चलकर उस सदृश्य सभी प्रजातियाँ ही इस पृथ्वी पर नष्ट होने
लगेगी । इसके कारण पृथ्वी के "जैव विविधता " पर घातक प्रभाव पड़ने लगेगा
इसके साथ ही उस "प्रजाति " के "सन्तुलन बिन्दु"/
"सहजीविता " पर टीके हजारों अन्य जीवों कि भी " विलुप्ति " की
ऊल्टी गिनती शुरू हो जाऐगी । इसलिए इस गम्भीर "इको सिस्टम " से
सम्बन्धित पहलु पर गहरी समझ रखते हुए आदिवासी समुदाय हजारों सालों से पीढ़ी दर
पीढ़ी अपने "पारम्परिक ज्ञान पैकेट्स " को सतत् विकसित करते हुए आ रहे
हैं जिसे कोयतोर समुदाय अपने गोण्डी भाषा में "पूनेम" कहते हैं । "पूनेम" शब्द दो गोण्डी शब्दों "पून" +
" नेम" से बना है " पुन" अर्थात " जानना "
/"ज्ञान " और " नेम" याने " कि ओर " अर्थात "
जानने की ओर " या " ज्ञान की ओर सतत् प्रवाहित होने वाले समुदाय" ।
इसे गोण्डीयन "कोया पुनेम " (प्रकृति धर्म ) कहना पंसद करते हैं । इस
प्रकार इस " पुनेमी ज्ञान " को वे " पडुंमो " में व्यवहारिक
अनुप्रयोग द्वारा संयोजित, संवर्धित व पल्लवित करते हुए
पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करते रहते हैं जैसा कि हमने "मरका पडुंम " के
उदाहरणों में हमने देखा । यहां आश्चर्यजनक पहलू और भी है कि ऐ इन पंडुमो के "
पुनेमी उदेश्यो " के सटीकता से समुदाय को परिपालन के लिए छोटे-छोटे बहुत ही
सरल व मजेदार नेंग -नियमों के द्वारा इसे व्यवहारिक व अनुपाल्य बनाऐ रखते हैं । "मरका
पडुंम " में ही एक "कोको पंडिग पाटा "
या नियंत्रित उपभोग करने की संदेश फैलाता "मुर्गा और बीज का गीत " गोटूल
लया लयोरों द्वारा गाया जाता है । इस गीत को तब गाया जाता है जब आम के फलों को
अपने पूर्वजों / पेन्क को अर्पित कर रहे होते हैं और जब सेवा अर्पण करके उपस्थित
जन समुदाय के बीच प्रथम उपभोग हेतु फलों के तुकड़े वितरित कर रहे होते हैं। ठीक इसी
वक्त इस गीत को प्रश्न- उत्तरीय शैली में गाया जाता है।
इस गीत के अनुवादित
अंश इस तरह है -
"मरका पडुंम " ------ "कोको को"
रेका पंडेम ------ कोको को
इरूक पंडेम ----' कोको को
तुमीर काया --- कोको को
"मरका पडुंम " ------ "कोको को"
रेका पंडेम ------ कोको को
इरूक पंडेम ----' कोको को
तुमीर काया --- कोको को
इसमें एक कोई भी बड़ा गोटूल लयोर खड़ा होकर खुशी - खुशी नारा लगाते हुए सभी से पुछता है कि अब हमने आम के फल सहित अन्य मौसमी फलों चार , तेन्दू आदि की सेवा कर उपभोग तो शुरू कर रहे हैं लेकिन उसे कैसे और किस तरह से खाना चाहिए के भावों से जोर जोर से ओजस्वी गीत के रूप में एक एक लाईन गाते जाता है, जैसे वह पुछता है "आम का फल" सामने से आवाज आती है. "कोको को"
इसका भावार्थ है कि अब हम कैसे आम के फल को खाऐ जिससे सामने वाले बच्चों से उत्तर आता है , "मुर्गे की तरह " अर्थात एक एक करके याने थोड़ा-थोड़ा करके। सीधे तौर पर कहे तो चूंकि आम का फल बच्चों में लालच उत्पन्न कर सकता है , उस लालच को नियंत्रित कर जितनी जरूरी है उतना ही फल तोड़ना ताकि उस वृक्ष मे अंतिम तक पेड़ में ही प्राकृतिक ढंग से फल पक कर नये अंकुरण की सम्भावनाओं को बड़ा सके । इसको हम उदाहरण के तौर पर यह अनुभव कर सकते हैं कि शहरी क्षेत्रों में बिना उद्यानिकी विभाग के आम के पौधों को प्राकृतिक ढंग से अपने आप उगने की कल्पना नहीं कर सकते जबकि हर आदिवासी क्षेत्रों में ऐसे भारी भरकम विभागों के बैगेर भी घरों में ऐसे पौधे प्राकृतिक ढंग से पल्लवित होते रहते हैं । इस तरह गोण्ड समुदाय इन " पारम्परिक ज्ञान " को "गोटूल " में संग्रहित व परिमार्जित कर "कोया पुनेम " के रूप में " पडुंम " के व्यवहारिक क्रियाओं के द्वारा इस पृथ्वी को मानव समुदाय के लिए अनंतकाल के लिए सुरक्षित बनाऐ रखने की कोशिश करते रहने वाला समुदाय है । क्या ऐसा सरल सार्वभौमिक और पवित्र दर्शन दुनिया के किसी अन्य "धर्म ग्रंथों" में मिलेगा ?
इतना ही नहीं "पडुंम " के अन्दर एक साथ कई मानवीय लक्ष्यों को वैज्ञानिक सम्मत ढंग से साधने की भी कोशिश छुपी होती है। उदाहरण स्वरूप इसी "मरका पडुंम / आम के त्योहार " में पुरखों को अर्पण या "सेवा" से पहले चूंकि फलों को खाने की मनाही होती है जिससे छोटे बच्चे भी इन छोटे फलों को खाने से दूर रहते हैं । जबकि जिन इलाकों में दूसरे समुदाय इन नियमों का पालन नही करते हैं उन क्षेत्रों में छोटे बच्चों के मुंह में छाले व घांव आम के सीजन में बहुतायत में दिखाई देते है ।दरअसल छोटे फलों में निकलने वाला "घातक एसीड " मुंह और पेट में छाले उत्पन्न कर देता है जिससे भविष्य में गम्भीर इन्फेक्शन का खतरा भी हो सकता है । लेकिन कोया समुदाय की इन "पडुंमो" में निहित "पुनेमी ज्ञान परम्पराओं " से वे अपने बच्चों को इन खतरों से बचा कर रखने में भी कामयाब हो जाते हैं ।
हे महान
प्रकृति के रक्षको, दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिको, अब समय आ गया है इस पृथ्वी पर जीवन की संभावनाओ
को अनंतकाल तक बचाऐ रखने के लिए प्रकृति पुनेम कोया पुनेम जरूरी है।
जय
सेवा! प्रकृति सेवा! जय लिंगो!
लेखक - नारायण मरकाम
(लिंगो ह्युमन मेट्रिक्स एण्ड इन्वायर्मेन्ट सिस्टम केबीकेएस बुम गोटूल यूनिवर्सिटी बेड़मा माड़)
लेखक - नारायण मरकाम
(लिंगो ह्युमन मेट्रिक्स एण्ड इन्वायर्मेन्ट सिस्टम केबीकेएस बुम गोटूल यूनिवर्सिटी बेड़मा माड़)

